चोखेरबाली की प्रथम वर्षगाँठ पर ढेरों बधाइयां ।
धन्यवाद सुजाता जी, लेख के वास्तविक उद्देश्य को उजागर करने के लिए ।फिजा का नाम तो मात्र उदाहरण के तौर पर आ गया, इस लेखिका कि उसके प्रति कोई अतिरिक्त सहानुभूति नहीं । बात सीमा की हो या फिजा की समाज दोष नारी को ही देना जानता है । पुरूष दो स्त्रियों की लड़ाई में साफ साफ बच जाता है । एक स्त्री के प्रति सहानुभूति दिखाते है दूसरी को पूरी तरह दोषी करार, कर पुरूष वाले पक्ष को भूल ही जाते हैं । सीमा की तपस्या तो अधिक कठिन व गंभीर है,उसके सामने बहुत से जटिल प्रश्न इस समय हैं । समस्या तो यह है कि समाज के ठेकेदार या मीडिया तो यह मानने को ज्यादातर तैयार ही नहीं होता कि नारी भी जीवन का कोई अर्थपूर्ण कार्य करने में व्यस्त हो सकती है । बहुत से निकम्मे पुरूष भी समाज में हमें आसपास दिखते हैं, बहुत सी स्त्रियां भी ।
"जिसके अन्दर कूबत होती है वो आगे बढ़ जाता/जाती है, नारी पुरूष की बात करना बेमानी है बात सबल निर्बल की है, नारी पुरूष की नहीं"
एक अबोध विचारहीन बालक या समाज को यह बात कहकर बहलाना बहुत आसान है। समाज विज्ञान संबंधी बहुत सी रपटें व प्रामाणिक लेख अखबारों में नित छपते ही रहते हैं । बात यहां यह है कि सबल निर्बल के भी कई पक्ष हैं, जो व्यक्ति पर ही निर्भर न हो कर उसके सामाजिक आर्थिक पारिवारिक माहौल पर टिके रहते है । ये सभी ज्यादातर एक पुरूष को सबल बनाते हैं तथा नारी को कमजोर । अपवादों को लेकर सामाजिक स्थिति की बात नहीं की जा सकती । मीडिया या फिर समाज का एक बड़ा तबका अपनी जल्दबाजी या व्यक्तिगत सीमा या मजबूरियों के चलते हालात के केवल स्थूल पक्षों को ही देख पाता है । जरूरत है, गहराई के साथ, संयम के साथ सूक्ष्म व तार्किक तरीके से समझ पैदा कर, हालात सुधारने की ।
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