Thursday, November 27, 2008

आतंक के ४० घंटे

पिछले ४० घंटों से देश की धडकनें तेज हैं, आम आदमी चिंताग्रस्त है । जो प्रत्यक्ष तौर पर मुम्बई में बचाव कार्यों से किसी भी रूप में जुडे हैं उनका तन मन आतंक से बहादुरी से जूझ रहे हैं, हम तक सूचनाएँ पहुँचा रहे हैं, हमारी हिम्मत पुरजोर बढ़ा रहे हैं। हम पिछले ४० घंटों से टी.वी. से चिपके परिस्थितियों के सकारात्मक दिशा में बढ़ने की बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं । रोजमर्रा के काम करते हुए भी हमारे मन प्राण उस घटना के तारों से जुडे़ हुए हैं । भीतर की सारी मानवीय भावनाआें को कुचल कर ये किशोर युवा आतंकवादी शायद तमाशे का मज़ा लेने में लगे हैं कि वे कितने बडे़ नियंता बन गए हैं । दुनिया के जनसंख्या के लिहाज़ से दूसरे बड़े देश, एक अरब की आबादी वाले देश की भावनाएँ आज उनकी एक एक गतिविधि से संचालित हो रही हैं ।
यह पूरा संसार इन किशोर युवा आतंकियों को शायद मिट्टी या मृत्तिका स्वरूप लग रहा है जिसके वे एकमात्र नियंता हैं । नियंता बनने के भावना हर बालक में होती है, बचपन के खेलों का वह अभिन्न हिस्सा होती है, हम सबको याद ही होगा । बचपन के उन खेलों को सही मार्गदर्शन मिल जाए तो हम सुंदर संसार का निर्माण कर उसके नियंता होने की कामना करते हैं आैर यही बचपन यही कुंठित दमित हो जाए तो भावनाएँ हिंसक हो उठती हैं, मौका लगते ही कुंठित दमित बचपन आतंकी युवा बन समाज का नियंता बनने का हर संभव प्रयत्न करता । सुनहरे भविष्य के लिए हमें आज के बचपन का भरसक सही पालन पोषण करना होगा, उनकी भावना के पंछियों को खुले आकाश की उदारता से परिचय करवाना ही होगा ।
दहशत की इस रात की जल्दी ही सुबह हो, देश के साहसी सपूत जो निस्वार्थ बलिदान दे रहें है, उनको मेरी अश्रुपूरित भावभीनी श्रद्धांजलि । हर कोई शक्तिभर प्रयास करे, सफलता अवश्य मिलेगी ।

Wednesday, November 26, 2008

समाधान सतत जागृत रहने से ही संभव

महिलाओं और बच्चों के लिए वयस्क समाज अक्सर संवेदनशील नहीं होता । उनकी इच्छाओं और सोच को परिवार की निर्णय लेने वाली इकाई किसी गिनती में ही नहीं लाते । इसी का परिणाम है चाहते न चाहते, जाने अनजाने उन पर अत्याचार । परिवार ही नहीं समाज की अन्य इकाइयों में भी हम देखते है चाहे स्कूल में बच्चे हों या फिर आफिस में काम करने वाली सामान्य स्तर की महिला कर्मी दोनों की ही बात नहीं सुनी जाती । हमेशा दूसरों द्वारा लिए गए निर्णय ही उन पर लादे जाते हैं । जो भी अधिकार की कुर्सी पर बैठा है वह अक्सर ही बिना हालात की गहराई को समझे अपनी सोच समझ और साथ ही अंहकार के चलते निर्णय लेता है । अधिकार की कुर्सियों पर जब तक जाति, लिंग, धर्म, धन या अन्य किसी भी अहंकार को लेकर मनुष्य बैठेगा, या जब तक मनुष्य बनकर मनुष्य नहीं बैठे और निर्णय लेगा तब तक अन्याय होता ही रहेगा ।

Monday, August 11, 2008

hindi

हिन्दी ने वरदान दिया ,जीने का अभिमान दिया
इसकी सेवा में मन प्राण अपने लगायेंगे
जन-जन की प्यारी भाषा यह
उन्मुक्त उड़ने की अभिलाषा यह
अपने संग सबको आगे लेजायेगी ,
मन और बुद्धि की सच्ची आजादी क्या है
इसकी परिभाषा बतलाएगी .

Friday, July 11, 2008

जीवन से हम क्या चाहते हैं

क्या पाकर हम संतुष्ट होंगे ? इस प्रश्न के उत्तर को खोजने का तरीका हर किसी का अलग अलग हो सकता है । बचपन से हम जिस माहोल में रहते हैं , उसी के अनुसार जीवन में हमारी संतुष्टि के स्तर होते हैं । 'जब आवे संतोष धन सब धन धूरी समान' । किंतु ये संतोष धन पाने लालसा होते हुए भी हम जीवन में निरंतर आगे बढ़ना चाहते हैं। कितना संतोष ही और कितनी आगे बढ़ने की लालसा हो , दोनों में क्या संतुलन हो जो यह समझ जाए वही स्वस्थ और आनंदित रह सकता है । इस संतुलन के आभाव में ही हमारी मानसिक, शारीरिक,सामाजिक व अन्य तरह की समस्याओं का जन्म होता है । जब हम जरुरत से ज्यादा संतुष्ट ही जाते हैं तो निठल्ले हो कर बैठ जाते हैं और अपने जीवन के मूल्यवान पलों को नष्ट करते हैं । और जब हम लालसा में अंधे हो जाते हैं तो जो हमारे पास है उसे न भोग कर जो नहीं है उसी के पीछे भागते रहते हैं । इसलिए जो है दोस्तों उसका आनंद उठा लो कहीं वह भी हाथ से निकल न जाए । आज के उत्तराधुनिक जीवन में देखने बोगने को समझने को इतना कुछ है , सारा जीवन बस दिखने मात्र में ही निकल सकता है ।


Monday, June 23, 2008

उत्तर आधुनिकता

उन्नीसवी सदी की शुरुआत में हर कोई अपने को आधुनिक कहलाने में फक्र महसूस करता था , लेकिन इकिस्वीं सदी के शुरू में कोई भी उत्तराधुनिक नहीं कहलाना चाहता । सही मायने में उत्तरआधुनिकता का स्वरुप विरोधाभासी है । जैसा कि हर प्राकृतिक पदार्थ या प्रक्रिया का होता है । हालाँकि उत्तरआधुनिकता को बाजारी शक्तियों द्वारा पैदा कि गई प्रवृति कई बार मन गया है फिर भी उत्तर आधुनिकता में बहुत कुछ ऐसा पनपा है जो बाजारी शक्तियों और बाज़ार की रणनीति के बहार की बात है और उसकी पकड़ से बहुत दूर है । हाशिये पर पड़े लोगों को उत्तर आधुनिक तकनीकी विकास ने जो फलक और ताकत दी है वह आज से पहले सम्भव नहीं थी । मॉल की चकाचोंध ने आम आदमी को अपनी ओर ललचाती निगाहों से देखने को मजबूर किया है तो दूसरी तरफ़ अनेकों को रोजीरोटी भी दी है । जिन चीजों को वह पहले बस टीवी या सिनेमा के परदे पर ही देखता था उन्हें अब वह छु कर उनकी वास्तविकता को जाँच परख सकता है । वायवी दुनिया के सच को भी वह अब ज्यादा करीब से और खरा खरा जनता है । बच्चा मैगी या चिप्स खाने की जिद करता है , माँ-बाप उसे ले भी देते हैं , लेकिन जब पेट में दर्द होता है तो उसका कारण बताने पर अगली बार बचा लेने से पहले सोचता है । उत्तराधुनिक जीवन शैली को जीते हुए हम सब लोग इसकी कमियों से बच कर अपने जीवन को सुरक्षित और सुखी बनाने में ही लगे हैं और यदि ईमानदारी से जिएँ और कहें तो अधिकतर सफल भी हो रहें हैं । संतुलित जीवन के इससे अच्छे और सफल आदर्श हमें आज से पहले मुश्किल ही मिलते थे ।