नारी को पुरूष की तपस्या भंग करने के लिए तो सदियों से दोष दिया जाता रहा है लेकिन पुरूष यदि नारी जीवन की एकांत तपस्या को भंग कर दे तो भी उस पर उंगली उठा उसे दोषी ठहराने में समाज के अधिकतर ठेकेदारों को संकोच होता है । चाँद ने फिज़ा से शादी की तो भी पहली पत्नी को मोहरा बनाकर औरत को ही दोष दिया गया कि फिज़ा ने पहली पत्नी और बच्चों की जिंदगी बर्बाद कर दी । अब चँद्रमोहन गायब हो गया, फिज़ा को छोड़ गया तो भी उसी की गलती, उसने दूसरों का बुरा किया सो उसके साथ बुरा हो गया । यानी हर हाल में गलती औरत की ही है ।
पूरे दृश्य में मानो पुरूष कोई जीवंत इंसान ना हो मात्र एक कठपुतली हो जिसे जैसे चाहे चला लिया जाए । फि़जा़ ने अपने साथ हुए अन्याय या धोखे क विरूद्ध आवाज़ उठाई, क्योंकि उसकी पृष्ठभूमि सबल थी, बहुत लम्बे समय तक उसने आर्थिक और सामाजिक स्वतंत्रता की ताकत को समझा था । लेकिन अभी समाज में बहुत सी ललनाएं हैं जो मानसिक, आर्थिक और सामाजिक आजा़दी के मायने तक नहीं जानती और जिनके साथ धोखा हो रहा है । स्त्री के जानते बूझते भी पुरूष या उसका गुलाम समाज या परिवार नारी को मजबूर करने वाले हालात पैदा कर ही देता है । अधिकतर सामाजिक व्यवस्थाएं और उपव्यवस्थाएं पुरूषों के एकाधिकार में हैं । उनका ढाँचा लोकतांत्रिक नहीं है । स्त्रियों की मौजूदगी या तो शोपीस की तरह रहती है या फिर है ही नहीं । हम सब औरतों को पूरे मन से समाज में नीति निर्धारण की जिम्मेदारी के लिए तत्पर होना ही होगा अन्यथा यह शोषण नहीं रूकेगा ।
पढी लिखी औरतों की किसी भी भावना को अपने स्वार्थ के लिए शोषित करने वालों की समाज और कई बार तो परिवार में भी कमी नहीं होती, इसलिए सावधान तो हमीं को रहना होगा हर तरीके के शोषण से बचने के लिए । हम लोग जीवन के जिस भी महान (या समाज परिवार की नजर से तुच्छ) क्षेत्र में तपस्या में रत हैं, लगी रहें, और एक एक ईंट जोडकर नए समाज को खड़ा करती रहें । जीवन के नए क्षितिजों को एक्सप्लोर करने की हमारी तपस्या किसी की स्वार्थ पूर्ति में होम न हो जाए ।
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